‘मीडिया ने आपका मजाक बनाकर रख दिया है लेकिन खुद आपके पास अपना मीडिया नहीं है जहां आप अपनी बात रख सकें. अपने खिलाफ हो रहे हमलों का जवाब दे सकें. आजादी के इतने साल बाद भी आप एक ऐसा प्लेटफार्म नहीं बना सके हैं. आरिफ मोहम्मद खां ने भी मुसलामानों की सोच को आड़े हाथों लिया. अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘मुसलामानों को फतवा देने का मर्ज है. देवबंदी की नजर में ‘बरेलवी’ काफिर है, बरेलवी के यहां ‘देवबंदी’ काफिर है और दोनों मिलकर कहते हैं, ‘अहले-हदीस’ काफिर है. तीनों मिलकर ‘शिया’ को काफिर कहते हैं और चारों मिलकर कहते हैं कि हिंदू काफिर है. मैं पूछता हूं, भई मुझे किसने हक दिया दूसरे के ईमान का फैसला करने का…
‘शायद हम इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि इस्लाम की तारीख में पहला कुफ्र का फतवा उस पर लगाया गया जिसने नबी की गोद में तरबियत पायी जो चलता फिरता इस्लाम था. पहला फतवा कुफ्र का हज़रत अली के ऊपर लगा. इस्लाम को मजाक बना दिया है ‘सईद भाई जो बोले वो बड़ी हद तक सही था. लेकिन सईद भाई आप देर में बोल रहे हैं. काश कि 1986 में आपलोग खड़े हो गए होते तो जिस चीज का रोना आज रो रहे हैं वो चीज शायद न होती. ‘काश हमने मौलाना आज़ाद को आजादी के बाद जलील करने के बजाय उन्हें सुना होता यहीं दिल्ली में, जामा-मस्जिद की तकरीर में उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान बदल चुका है अब यहां मुस्लिम लीग के लिए कोई जगह नहीं है. ‘क्या मौलाना आज़ाद मुस्लिम-लीग तंजीम (संगठन) की बात कर रहे थे? या उस फिरकेवाराना जेहन की बात कर रहे थे…उस अलगाववाद की बात कर रहे थे, जिसके अनुसार एक बेचारी विधवा औरत को (शाहबानो केस) ढाई सौ…सिर्फ ढाई सौ रूपये देने से हमारा धार्मिक संतुलन बिगड़ने का खतरा पैदा हो जाता है.’