महात्मा गाँधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है।
आज़ादी के बाद पहले राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार भले ही राजेंद्र प्रसाद और राजगोपालाचारी हो, पर यह असल में राजेंद्र प्रसाद और नेहरु के बीच की साझेदारी का नतीज़ा था. सरदार वल्लब भाई पटेल भी प्रधानमंत्री पद के ताकतवर दावेदार थे. नेहरु के पहले देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद पटेल ने संगठन पर अपनी पकड़ कसना शुरू कर दिया था.
गाँधी जी का आखिरी वादा पटेल से
महात्मा गाँधी समय के इतने पक्के थे कि लोग उनकी दिनचर्या को देखकर अपनी घड़ियों का टाइम मिलाया करते थे. लेकिन 30 जनवरी 1948 को कुछ ऐसा हुआ जब गाँधी जी , शाम की सभा के लिए देर से पहुंचे. और वो सभा दिल्ली के बिड़ला भवन में थी, लेकिन किसको पता था कि उनकी मौत पहले से ही उनका इंतजार कर रही थी. यह कहानी सबको पता है कि गाँधी जी की हत्या नाथूराम गोड़से ने इसी सभा में की थी. लेकिन आज तक किसी को यह नहीं पता होगा कि आखिर गाँधी जी इस सभा में 15 मिनट देरी से क्यों पहुंचे थे?
सभा का समय 5 बजे था. गाँधी जी और पटेल एक जरुरी काम के चलते काफी व्यस्त थे. इसी बीच पटेल गाँधी जी से कहने आये थे कि अगर नेहरु अपना काम करने का तरीका नहीं बदलते, तो मैं अपने पद से इस्तीफा दे दूंगा. गांधी जानते थे कि तमाम आदर्शवाद के बावजूद नेहरू बिना पटेल के इस नए देश को नहीं संभाल पाएंगे. गाँधी जी ने पटेल से अपना इस्तीफा कुछ दिनों तक रोकने के लिए कहा था.
जब नेहरू को अपना भाषण बीच में रोक देना पड़ा
पटेल और राजेंद्र प्रसाद उस समय से काफी नजदीक थे जब 1923 में राजेंद्र प्रसाद नागपुर के झंडा सत्याग्रह में शामिल होने गए थे. इस आंदोलन का नेतृत्व सरदार पटेल कर रहे थे. राजेंद्र प्रसाद ने लिख था –
“यूं तो सरदार से मुलाकात थी ही. पर नागपुर में ही उनसे वो घनिष्ठता हुई, जो मेरे जीवन की सबसे सुखद स्मृतियों में हमेशा बनी रही. वहीं मेरे दिल में उनकी कार्य-कुशलता, गंभीरता, नेतृत्व शक्ति के प्रति महान आदर उत्पन्न हुआ.”
सरदार पटेल सोमनाथ मंदिर का फिर से निर्माण करवाना चाहते थे. मंदिर को फिर से बनवाने के लिए पटेल के साथ राजेंद्र खड़े थे. वो अन्दर ही अन्दर राजेंद्र प्रसाद का साथ दे रहे थे.लेकिन सार्वजनिक तौर पर उन्होंने अंत तक अपने पत्ते नहीं खोले. पटेल नेहरु को इस भ्रम में रखा कि वो उनके साथ हैं.
जब इस मामले ने जोर पकड़ लिया, तब नेहरु ने पूरे मामले को सुलझाने के लिए 5 अक्टूबर,1949 को संसदीय दल की बैठक बुलाई. नेहरू को पूरी उम्मीद थी कि पटेल उनका साथ जरुर देंगे. बैठक शुरू हुई. नेहरू ने जैसे ही राजगोपालाचारी के नाम का प्रस्ताव रखा, चारो तरफ शोर-शराबा शुरू हो गया था.
इसके तुरंत बाद नेहरु पटेल की तरफ मदद के लिए देखते है. इस मुश्किल की घड़ी में सरदार ने नेहरू का साथ छोड़ दिया. नेहरु जंग हार चुके थे. जंग हारने के बाद नेहरु भाषण को बीच में छोड़कर चले गए. इस तरह राजा जी की बजाये राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति बने थे.