भारत के मुसलमानों ने खुद को कभी देश का हिस्सा समझा नहीं देखिये कैसे !

सईद भाई आप देर में बोल रहे हैं. काश कि 1986 में आपलोग खड़े

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अभी दो हफ्ते पहले उत्तर प्रदेश के जो चुनावी नतीजे आये हैं, वो अपने आप में ऐतिहासिक हैं और इसमें किसी तरह का कोई शक भी नहीं है. लेकिन ऐतिहासिक इसलिए नहीं हैं कि बीजेपी ने बड़ा बहुमत प्राप्त किया है. ऐतिहासिक इसलिए भी नहीं कि देश में पहली बार किसी प्रदेश का चुनाव 40 प्रतिशत वोट-शेयर से जीता गया है, शायद इसलिए भी नहीं कि बीएसपी और एसपी के गढ़ में दिन-दहाड़े सेंध लग गयी. ये चुनाव इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि इसमें मुसलमान हार गया है. कम से कम मुसलमान यही सोच रहा है अगर गलती से नहीं भी सोच रहा है तो उसे ऐसा सोचने को मजबूर किया जा रहा है. बात चाहे कहीं से शुरू कीजिये खत्म इस बात पर होती है कि, ‘और मुसलमान हार गया.

हुस्नारा ट्रस्ट की जानिब से एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिसका नाम था, ‘सदा-ए-ज़िन्दगी’. ये जश्न शिया सम्प्रदाय के चौथे इमाम (इमाम हुसैन के बेटे) की पैदाइश के चौदह सौ साल पूरे होने पर किया गया था. यहां दूसरे लोग भी जरूर होंगे लेकिन सभागार शिया मुसलमानों से भरा था. इनमें कई धर्मगुरू, पूर्व मंत्री और गवर्नर सिब्ते रज़ी, सईद नक़वी और आरिफ मोहम्मद खान जैसी शख्सियतें मंच पर बैठी थीं.

पर्यावरण और सियासी माहौल

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